खुदीराम की अस्थि चूर्ण और भस्म के लिए मची थी छीना झपटी, विद्रोह में लोगों ने पहनी थी विशेष धोती
डेस्क: 11 अगस्त 1908 को 16 साल, छह महीने और 11 दिन का किशोर फांसी के तख्ते पर खड़ा मुस्कुरा रहा था. जल्लाद ने जब गले में फंदा डाला तो उसने पूछा, ‘अरे, फांसी की रस्सी में ये मोम क्यों लगाते हैं?’ जल्लाद ने जवाब तो नहीं दिया, नीचे का तख्त खींच लिया. बताया जाता है कि फंदे के सामने उनका उत्साह देख कर अंग्रेज भविष्य की क्रांति को लेकर काफी भयभीत हो गये थे और हुआ ऐसा ही.
‘खुदीराम’ लिखी धोती पहन सरेआम विद्रोह करने लगे युवा खुदीराम बोस के शहीद होने के साथ ही पूरे देश में क्रांति की लहर दौड़ पड़ी. युवाओं के लिए वह अनुकरणीय हो गये. बुन कर विशेष प्रकार की धोती बनाने लगे, जिनके किनारों पर ‘खुदीराम बोस’ लिखा रहता था. इस पहन कर बिहार-बंगाल के युवा सरेआम अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने लगे. उस समय उस धोती की मांग खूब बढ़ी हुई थी. अंग्रेजों के पोशाक जहां-तहां जलाये जा रहे थे. खुदीराम बोस को भी अंग्रेजों के पोशाक जलाने में काफी आनंद आता था. प्रसिद्ध साहित्यकार शिरोल की पुस्तक में इन बातों का जिक्र है. स्कूल-कॉलेज बंद रहे. चारों ओर शोक व्याप्त रहा.
यहां सजी थी चिता
अस्थि चूर्ण और भस्म लेने को उमड़ी थी भीड़ शहीद खुदीराम बोस की चिता गंडक नदी के तट पर बसे सोडा गोदाम चौक, चंदवारा में सजाया गया था. यह जगह मुजफ्फरपुर स्थित केंद्रीय कारागार से करीब दो किलोमीटर के दायरे में ही है, जहां शहीद खुदीराम बोस को फांसी दी गयी थी. 1928 में छपे एक लेख में वर्णन है, ‘खुदीराम की अस्थि चूर्ण और भस्म के लिए परस्पर छीना झपटी होने लगी. कोई सोने की डिब्बी में , कोई चाँदी के और कोई हाथी दांत के छोटे-छोटे डिब्बों में वह पुनीत भस्म भर ले गये! एक मुट्ठी भस्म के लिए हज़ारों स्त्री-पुरुष प्रमत्त हो उठे थे.”
तीन मुट्ठी चावल देकर खरीदा, इसीलिए नाम पड़ा ‘खुदीराम’
3 दिसंबर 1889 को जन्मे खुदीराम बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनकी माता लक्ष्मीप्रिया और पिता त्रैलोक्यनाथ का निधन हो गया था. उनकी बड़ी बहन ने ही उनको पाला था. उन दिनों के रिवाज़ के हिसाब से शिशु का जन्म होने के बाद उसकी सलामती के लिए कोई उसे खरीद लेता था. तीन मुट्ठी खुदी ( चावल ) देकर उनकी दीदी ने उन्हें खरीद लिया, जिससे उनका नाम ‘खुदीराम’ पड़ा.
बंगाल विभाजन (1905 ) के बाद खुदीराम बोस स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था.पुलिसवाले की नाक में घूंसा मार भाग निकले थे वह वंदेमातरम के पर्चे बांटते थे. पुलिस ने 28 फरवरी 1906 को सोनार बांग्ला नामक एक इश्तेहार बांटते हुए पकड़ लिया था, बोस पुलिसवाले की नाम में घूंसा मार कर फरार हो गये थे.
6 दिसंबर, 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बम विस्फोट की घटना में शामिल थे. मुजफ्फरपुर में मजिस्ट्रेट किंग्सफर्ड को मारने के लिए फेंके थे बम वह प्रफुल्ल चंद चाकी के साथ मजिस्ट्रेट किंग्सफर्ड की हत्या के लिए मुजफ्फरपुर पहुंचे. 30 अप्रैल 1908 की रात साढ़े आठ बजे क्लब से किंग्सफर्ड की पत्नी कैनेडी और उसकी बेटी बग्घी में बैठ कर घर की तरफ रहे थे. खुदीराम व उनके साथी ने किंग्सफर्ड की बग्घी समझ कर उस पर बम फेंका, जिससे मां-बेटी की मौत हो गयी. दोनों यह सोच कर भाग निकले कि किंग्सफर्ड मारा गया. पूसा रोड रेलवे स्टेशन (अब खुदीराम बोस के नाम पर है) पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया. प्रफुल्ल चंद चाकी ने खुद को गोली मार ली, पर खुदीराम पकड़े गये.
हर साल सजती है मुजफ्फरपुर जेल की वह काल कोठरी
मुजफ्फरपुर जेल की जिस काल कोठरी (सेल) में अमर शहीद खुदीराम बोस को रखा गया था, उस काल कोठरी के साथ-साथ फांसी स्थल को जेल प्रशासन पुण्यतिथि पर हर साल सजाता है. 1 मई 1908 से 11 अगस्त 1908 तक खुदीराम बोस को इसी सेल में रखा गया था. सेल को बंद करके रखा जाता है. हर साल 11 अगस्त को शहादत दिवस पर श्रद्धांजलि देने से पूर्व सेल की साफ-सफाई व रंगाई-पोताई होती है. 11 अगस्त 1908 को जिस स्टैंड पर अंग्रेजी हुकूमत ने खुदीराम बोस को फांसी के फंदे पर झूला दिया. वह स्टैंड व फांसी का फंदा जेल में संरक्षित कर रखा गया है.
आखिरी इच्छा जान कर दंग रह गये थे जज
बताया जाता है कि जब उनकी फांसी की सजा की घोषणा हुई तो वह दिल खोल के हंसे. इसके बाद उनसे आखिरी इच्छा पूछी गयी तो उन्होंने कहा, ‘मैं एक अच्छा बम बना सकता हूं, मैं मरने से पहले सभी भारतीयों को इसे सिखाना चाहता हूं.’ उनके जवाब से स्तब्ध न्यायाधीश ने पूछा, ‘क्या आप डरते नहीं हैं? इस पर उन्होंने जवाब दिया ‘मैंने गीता पढ़ी है. मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है.
उपेंद्रनाथ सेन खुदीराम के वकील थे. उनकी टिप्पणी के अनुसार, ‘खुदीराम निडर होकर फांसी पर चढ़ गये. उसमें कोई डर या पछतावा काम नहीं कर रहा था. वह इस देश के युवाओं के प्रतीक के रूप में मुस्कान के साथ फांसी पर चढ़ गया.’ लोककवि पीताम्बर दास ने उस क्षण को ध्यान में रखते हुए लिखा, ‘एक बार बिदाई दे मां घुरे आसी, हांसि-हांसि परब फांसी, देखबे भारतवासी.. कालेर बोमा तोयरी कोरे दारिये छिलम रास्तार धारे..बड़ो लाट
के मारते गिये मारलम आर एक इंग्लैंडवासी’. यह बंगाल के प्रसिद्ध बाउल गीतों में एक है.