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राष्ट्रविरोधी थे टैगोर? राष्ट्रवाद के बारे में रवींद्रनाथ टैगोर के ऐसे विचार जो आज उन्हें राष्ट्र विरोधी घोषित कर देंगे

डेस्क: राष्ट्रवाद के विरोध में बात करने वाले को आमतौर पर राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिया जाता है। लेकिन एक समय था जब रवींद्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के विरोध में बातें भी करते थे और उन्हें राष्ट्र विरोधी भी नहीं घोषित किया गया। लेकिन यदि वह उस तरह की बातें आज करती हूं में राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिया जाता।

लेकिन राष्ट्रवाद के विरोध में बातें करने के बाद भी रविंद्र नाथ टैगोर को विश्व प्रसिद्ध कवि और उपन्यासकार के तौर पर जाना जाता है। साथ ही महात्मा गांधी ने उन्हें “गुरुदेव” की उपाधि भी दी। आज उनकी 80वीं पुण्यतिथि है और इस अवसर पर हम आपके लिए रवींद्रनाथ टैगोर से जुड़े कुछ ऐसे बातों को लेकर आए हैं जो उन्हें आज के समय में राष्ट्र विरोधी घोषित कर सकती हैं।

आजादी के लड़ाई में लेखकों का भी रहा योगदान

अंग्रेजों के 200 साल के शासन के बाद आखिरकार 15 अगस्त 1947 को हमारे देश को आजादी मिली लेकिन यह आजादी केवल गोलियों या आंदोलनों के दम पर नहीं पल की कई लेखकों व उपन्यासकारों के कलम से निकलती ज्वाला के कारण भी मिली है। उन्हीं महान उपन्यासकारो में से एक थे रवींद्रनाथ टैगोर।

राष्ट्रवाद के कट्टर विरोधी थे टैगोर

आज तक हम केवल रविंद्र नाथ टैगोर के बारे में इतना ही जानते हैं कि वह बहुत बड़े कवि और उपन्यासकार हैं तथा उन्होंने भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान को लिखा है। इसके अलावा हम यह भी जानते हैं उनके द्वारा लिखे गए “गीतांजलि” के कारण ही उन्हें साहित्य में नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। इसी के साथ साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले व सबसे पहले गैर यूरोपीय शख्स बने। लेकिन यह बात काफी कम लोगों को पता है कि वह राष्ट्रवाद के घोर विरोधी थे।

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1908 में उन्होंने अपने एक मित्र को पत्र लिखते हुए कहा कि वह कभी भी देशभक्ति को इंसानियत से ऊपर नहीं आने देंगे। उन्होंने राष्ट्रवाद को एक ऐसा महामारी बताया जो कभी किसी देश को विकास के मार्ग पर चलने नहीं देता। उन्होंने अपने एक किताब “घोरे बायरे” मैं लिखा है कि मैं अपने देश का प्रधान सेवक बनने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं देश की पूजा नहीं करूंगा क्योंकि ऐसा करना उसका दुर्भाग्य लाने जैसा होगा।

असहमति को देश की प्रगति के लिए बताया आवश्यक

कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर का मानना था कि असहमति देश की प्रगति के लिए काफी आवश्यक है। और यही कारण था कि वह महात्मा गांधी के साथ बहस छेड़ देते थे। महात्मा गांधी ने भी कभी इसे अपने सम्मान के तौर पर नहीं देखा। बल्कि उनका भी यही मानना था कि देश की प्रगति के लिए सवाल पूछना आवश्यक है। महात्मा गांधी के साथ टैगोर की स्वराज के मुद्दे पर एक बहस काफी प्रसिद्ध है जिसे “द ग्रेट इंडियन डिबेट” के नाम से भी जाना जाता है।

गांधी के असहयोग आंदोलन का टैगोर ने किया विरोध

जिस वक्त पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट हो रहा था उस वक्त गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया। इसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटेन में बने वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं को अपनाना था। लेकिन रवींद्रनाथ ने इसका खुलकर विरोध किया क्योंकि उनका मानना था कि आम किसान और देश की गरीब जनता भारत में बने वस्तुओं को खरीदने में असमर्थ है क्योंकि वह महंगे होते थे जबकि ब्रिटिश सामान सस्ते होते थे।

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उनका कहना था कि कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें यह सब तरीके देश हित में लगते हैं लेकिन ऐसे लोगों से भविष्य में न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती। उनका मानना था कि देश के लिए बड़ी दिक्कत विदेशी सामान नहीं है बल्कि देश के अंदर हो रहे आपस के झगड़े हैं। इसलिए उन्होंने विदेशी वस्तुओं का त्याग करने से पहले अपने आपस के झगड़ों को मिटाने की सलाह दी।

टैगोर ने “स्वराज” को बताया धोखा

जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ स्वराज के लिए लड़ाई लड़ रहा था तब रविंद्र नाथ टैगोर ने इसे एक धोखा बताया उनके अनुसार स्वराज एक मोह माया है और असली स्वतंत्रता फ्रीडम ऑफ माइंड है। उनका मानना था कि यदि सभी लोग किसी साजिश का शिकार होकर फैसले ना लेकर अपने सोच समझ से सही फैसले लें तो वही सच्चे मायनों में आजादी होगी। उनके अनुसार जब तक प्रत्येक भारतवासी अपने खुद के लिए आवाज नहीं उठाता तब तक हमें आजादी नहीं मिल सकती।

टैगोर के अनुसार सरकार के खिलाफ आवाज उठाना है आवश्यक

जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद जब उन्हें अंग्रेजों द्वारा नाइटहुड की उपाधि दी जा रही थी तब उन्होंने यह सोचते हुए उस उपाधि को लौटा दिया कि यदि वह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो इससे सभी भारतीयों को हिम्मत मिलेगी। उनका मानना था कि उनके ऐसा करने से सभी देशवासी भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट होकर आवाज उठाएंगे।

स्कूलों में दी जा रही शिक्षा से थी आपत्ति

रवींद्रनाथ टैगोर को स्कूलों में टीचर शिक्षा से काफी आपत्ति थी इसलिए उन्होंने खुद भी अपना ग्रेजुएशन पूरा नहीं किया। उनका मानना था की स्कूलों में किसी देश का इतिहास नहीं बल्कि इंसानियत के इतिहास के बारे में पढ़ाना चाहिए। साथ ही उनके अनुसार शुरुआत से ही स्कूलों में देश को भगवान की तरह दिखाया जाता है जिसके वह घोर विरोधी थे।

उनका मानना था कि देश को भगवान मानकर इस की पूजा करने से हम विकास के पथ पर आगे नहीं बढ़ पाएंगे। शिक्षा व्यवस्था के प्रति असंतोष होने के कारण रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन की स्थापना की जहां खुले विचारों और खुले सोच को बढ़ावा दिया जाता है।

राष्ट्रवाद को बताया जहर

रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार राष्ट्रवाद का मतलब एकता और भाईचारे को बढ़ावा देना होता है न कि राष्ट्रपति अंधभक्ति को बढ़ावा देना। उनके अनुसार यह एक जहर की तरह है जो दूसरे धर्म से नफरत करना सिखाता है। उनका मानना है कि यदि कोई धर्म अपने पड़ोसी से नफरत करना सिखाए तो उस देश का पतन निश्चित है क्योंकि ऐसा करके हमने राष्ट्रवाद के नाम पर खुद को ही बांट लिया है।

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