ऐसे बना सेंगोल भारत के स्वतंत्रता का प्रतीक
डेस्क: साल 1947 ब्रिटिश शासन से मुक्ति की बेला थी। भारत अपनी स्वतंत्रता के समीप था। स्वराज के लिए संघर्ष में हजारों गिरफ्तार हुए और मारे गए। दशकों बाद राष्ट्र अपने स्वाधीनता के लक्ष्य के समीप था। अब भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबैटन को एक महत्वपूर्ण कार्य करना था, जो था – भारतीयों को उनका स्वराज्य सौंपने का कार्य। लेकिन यह इतना आसान नहीं था।
वह असमंजस में थे कि भारतियों को स्वराज्य किस प्रकार सौंपा जाए? अंग्रेज आमतौर पर हाथ मिलाकर सत्ता का हस्तांतरण करते थे। लेकिन भारत में हाथ मिलाने की रस्म काम नहीं आने वाली थी। ऐसे में लॉर्ड माउंटबैटन के सामने यह सवाल था कि इस गौरवशाली क्षण के प्रतीक के रूप में कौन सी रस्म अपनाई जाए?
सेंगोल का तमिलनाडु से संपर्क
उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के सामने अपना ये सवाल रखा। ये एक उचित सवाल था जिसके बारे में विचार विमर्श की आवश्यकता थी। नेहरूजी ने ये प्रश्न जानेमाने स्वतंत्रता सेनानी सी राजगोपालाचारी के सामने रखा, जिन्हें राजाजी के नाम से जाना जाता था। वे तमिलनाडु से थे।
पंडित नेहरू राजाजी की विद्वता और भारतीय परंपराओं और सभ्यताओं पर उनके ज्ञान का सम्मान करते थे। राजाजी ने नेहरू द्वारा दिए गए दायित्व को पूरा किया। उन्हें इस समस्या कस समाधान भारत के गौरवशाली अतीत में मिला। उन्होंने पाया कि तमिलनाडु के चोल साम्राज्य, जो भारत के प्राचीनतम और दीर्घकाल तक चलने वाले साम्राज्यों में से एक था, में एक सम्राट से दूसरे सम्राट को सत्ता का हस्तांतरण नीति परायणता के प्रतीक ‘सेंगल’ को सौंप कर करते थे।
राजगोपालाचारी ने दिया सेंगोल के उपयोग का प्रस्ताव
राजा जी ने पंडित नेहरू को इसी परंपरा को अपनाने की सलाह दी, जिसे नेहरू जी ने स्वीकार किया। राजा जी ने बिना समय गवाएं इस समारोह के लिए प्रमुख धार्मिक मठ या आश्रम तिरुअवदूतुरई आदिनाथ से संपर्क किया, जिसे पांच सदियों पहले स्थापित किया गया था और ये तब से चोला भूमि के केंद्र में स्थित है और आज तक कार्यरत हैं।
तत्कालीन मठ प्रमुख ने इस कार्य को स्वीकार किया और सेंगोल बनाने का दायित्व मद्रास के प्रसिद्ध स्वर्णकार डुमरी बंगारू को सौंपा। सेंगोल के शीर्ष पर नंदी विराजमान थे जो कि शक्ति, सत्य और न्याय के प्रतीक हैं।
सेंगोल बनकर तैयार हुआ तत्पश्चात नेहरूजी जी ने श्री राजेन्द्र प्रसाद सहित कई नेताओं की उपस्थिति में सेंगोल को स्वीकार किया। इस प्रकार सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया समाप्त हुई। हस्तांतरण की प्रक्रिया के पश्चात पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को अपना विश्वविख्यात भाषण राष्ट्र के नाम संबोधित किया।