आदरणीय श्री ध्रुवदेव मिश्र पाषाण जी हिंदी साहित्य के धरोहर तो हैं ही उनके व्यक्तित्व और विचारों का प्रभाव ऐसा है कि आप उनके विचारों की गहराई में डूब जाते हैं, फिर भले आप घर से सोच कर निकले हो कि एक दो घंटे में लौट आएंगे, लेकिन, उनके साथ कई घंटे ऐसे निकल जाएंगे कि आपको समय का भान ही नहीं होगा।
जब वो कहते कि साहित्य का कोई दल नहीं होता और भले मैं वामपंथी विचार धारा का पक्षधर रहा हूँ लेकिन बाकी किसी दूसरे दलों से मुझे नफरत कतई नहीं है, वो कहते है हर वो इंसान जिसे शब्दों से प्रेम है, मेरे लिए उनका सम्मान है, वो युवा वर्ग को प्रोत्साहित करते कहते है कि अगर कोई बस लिखता है तो निःसंदेह उसका स्वागत है।
लेकिन स्वीकृति हेतु तपने की जरूरत है, तभी सोना कुंदन बनता है, वो कहते है कि कई लोग युवा वर्ग के लेखन को सीधे खारिज कर देते है जबकि जरूरत है उसे मांजने की, अगर कोई नवांकुर कच्चा – पक्का कैसा भी लिखता है, लेकिन, बस अपनी संवेदनाओं को शब्द देता है तो निश्चित रूप से हमें खुश होने की जरूरत है कि समाज में एक संवेदनशील व्यक्ति की संख्या बढी, वो ये भी कहने से नहीं चूकते की अगर किसी का व्यक्तित्व उसके लेखन से मेल नहीं खा रहा हो तो उसके विरोध के बदले उसे दया की दृष्टि से देखने की जरूरत है, लेकिन, ऐसी स्थिति में उसका मूल्यांकन उसके लेखन पर नहीं अपितु उसके व्यक्तित्व पर हो तो ज्यादा बेहतर है।
अपने संघर्ष के दिनों को याद कर आज भी जब वो कहते है कि मेरी मदद को मेरे सभी बच्चे तेयार रहते हैं। हमने बच्चों को ऐसे संस्कार तो जरूर दिए है लेकिन आज भी मुझे अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी है और खास बात कि वो सिर्फ़ कहते नहीं है हाल ही में प्रतिवाद प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक “सरगम के सुर साधे” की चर्चा करते हुए जब वो इस बात कर ज़िक्र करते है कि बहुत मुश्किल से बच्चों के बार-बार कहने के बावजूद अपने ही पेंशन के पैसों से इस पुस्तक का प्रकाशन करवाया है तो यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है कि यह न सिर्फ साहित्य के प्रति उनका समर्पण है अपितु वे सचमुच पाषाण है यह पुष्टि भी शत प्रतिशत हो जाती है।
मेरा सौभाग्य है और मित्र तथा मरुतृण साहित्य पत्रिका के संपादक सत्यप्रकाश भारतीय जी के सहयोग से अक्सर उनका आशीर्वाद मिलता रहता है। सिर्फ नाम से ही नहीं कर्म से पाषाण इस दिव्य आत्मा को शत शत बार प्रणाम।
-अमित कुमार अम्बष्ट (आमिली)