पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य और एसपी की प्रासंगिकता
मैंने किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की। मेरी प्रतिबद्धता अपने पेशे यानी पत्रकारिता के प्रति हैं। एसपी से पत्रकार अजीत राय की आखिरी बातचीत एसपी के ब्रेन हेमरेज से ठीक 1 दिन पहले जनसत्ता में छपी थी। उपहार कांड के बाद 13 जून को उनका ब्रेन हेमरेज हुआ और 27 जून को वह हमेशा के लिए हम सब को अलविदा कह कर इस दुनिया से चले गए। वर्तमान परिदृश्य में एसपी की प्रासंगिकता और भी अधिक है, क्योंकि हम ऐसे दौर में हैं, जहां पत्रकारिता को अपने अस्तित्व के संकट से जूझना पड़ रहा है। इतना ही नहीं मिशन व्यसन और प्रोफेशन के रूप में इसकी परिभाषा को भी पुनर्स्थापित करने की जरूरत पर बहस जारी है।
अगर अखबार निकालना एक उद्योग है तो मुनाफा इसका अंतिम लक्ष्य क्यों ना हो। क्या यही वजह है कि पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों में क्षरण व पत्रकारों की स्थिति मीडिया मजदूरों वाली हो गई है। ऐसे में हर साल नई एंट्री हो रही है। विडंबना है कि जहां आवारा पूंजी के बल पर हर साल में अखबार व टीवी चैनल अस्तित्व में आ रहे हैं। वहीं दूसरी ओर पत्रकारों को अपनी नौकरी खोने का भय उन्हें पेशे के प्रति प्रतिबद्ध होने से रोक रहा है। पत्रकार जनता के नहीं बल्कि अपने आकाओं के लिए कलम चलाने को अपना पत्रकारिता धर्म मानते हैं। बड़े से बड़े मीडिया घरानों में कार्यरत विद्वान पत्रकारों की हैसियत अपने मालिक का प्रवक्ता बनकर रह गई है। क्या पत्रकारिता समाज से वास्तव में कट गई है, क्या पत्रकार सचमुच इस स्थिति में है, जहां प्रोफेशनल होना उनकी मजबूरी हो गई है।
ऐसे समय में एसपी सिंह को याद करना और भी जरूरी हो जाता है। क्योंकि एसपी ने वैसे तो अपने करियर की शुरुआत धर्मयुग से की थी। लेकिन रविवार के संपादक के रूप में उन्होंने ना सिर्फ कीर्तिमान बनाए बल्कि कीर्तिमान तोड़े भी। एसपी ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया तेवर दिया। रविवार हिंदी पत्रकारिता का अभिनव प्रयोग था। जिसके पीछे एसपी कि इस पेशे के प्रति प्रतिबद्धता थी। आनंद बाजार समूह जैसे कारपोरेट मीडिया संस्थान में उन्होंने रविवार के माध्यम से पूरे देश को पत्रकारिता विधा की शक्ति से परिचित कराया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पत्रकारिता नेताओं के पिछलग्गूपन का शिकार थी। आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी देश की रहनुमा पार्टी होकर उभरी थी। स्वाभाविक ही था कि पत्रकारिता पूरी तरह से कांग्रेस को समर्पित होकर रह गई थी। उसमें सत्ता के खिलाफ जाने का वह तेवर नहीं था। ऐसे में आपातकाल के बाद 1977 में देश ने एक नई करवट ली थी और उसी समय रविवार का संपादन करते हुए एसपी ने जो कुछ किया वह हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णकाल ही था। पहली बार खोजी पत्रकारिता से देश रूबरू हुआ। ना जाने कितने मुख्यमंत्रियों को रविवार की वजह से सत्ता से हाथ धोना पड़ा। एसपी ने हिंदी पत्रकारिता की ताकत को पुनर्स्थापित कर साबित कर दिया कि सबसे ज्यादा बोली सुनी और समझे जाने वाली इस भाषा का पत्रकारिता में अंग्रेजी से उपर है। शायद यही कारण था कि अकबर ने संडे में रविवार की स्टोरी को प्रकाशित किया। एसपी ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया आयाम दिया।
उनके नेतृत्व में पत्रकारों की एक पीढ़ी तैयार हुई जो आज भारतीय पत्रकारिता जगत के शीर्ष पर पर है। उन्होंने पत्रकारिता के मानवीय पहलु की मिसाल पेश की और स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता के वॉच डॉग की भूमिका वाली पत्रकारिता तैयार की।
अंशुमान भारती